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बलात्कार की टीस

मीत की कलम से
मीत की कलम से
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भयभीत मन था, आत्मा भी लज्जित थी !
देह उस अबला की, जख्मों से सुसज्जित थी !!
न पास कोई अपना, न वस्त्र कोई तन पर !
चल पडी वो अबला, बोझ लिए मन पर !!

देखकर के बिटिया को, सदमें में थे सारे !
किसको दें आवाज, भला किसको पुकारें !!
बात बाहर गयी तो, जग हँसायी होगी !
समाज में बदनामी होगी, रुसवायी होगी !!

लेकिन वहाँ किसी को भी, बिटिया की फिक्र नहीं !
दर्द और तकलीफ का, कहीं कोई जिक्र नहीं !!
कल तक जो अपने थे, एक पल में छूट गये !
हादसे की गूँज से, आईने सब टूट गये !!

सबको वहाँ फिक्र थी, मतलबी समाज की !
पहल भला कौन करे, बिटिया के ईलाज की !!
थाने में रिपोर्ट की, कोशिश बेमानी थी !
जहाँ देखो हर तरफ, ईज्जत की हानि थी !!

कोस रहा बाप खुद को, बेटी की पैदाईश पर !
घूमने की जिद पर, पढने की फ़रमाईश पर !!
जाने कब से अम्मा वहीं, कोने में बैठी थी !
अश्कों के सागर को, आँचल में समेटे थी !!

भाई उस बहना का, दिल ही दिल में घूट रहा !
ईश्वर पर से आज उसका, भरोसा ही छूट रहा !!
बहन एक छोटी सी, गुमसुम बेहोश सी !
मन में कई प्रश्न थे पर, जुबाँ खामोश थी !!

उधर किसी कमरे में, सिसकियों का शोर था !
बैठी थी अकेली वो, पास न कोई और था !!
कोस रही थी उस पल को, जिस पल वो जन्मी थी !
शायद वो लडकी थी, इसीलिए सहमी थी !!

घनघोर निराशा के, बादल चारों ओर थे !
टाँग लिया खुद को उसने, पंखे में डोर से !!
उसके दिल के जख्मों का, शायद ही ईलाज हो !
छोड चली वो बिटिया आज, जालिम समाज को !!

– अमित ‘मीत’

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