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एक बिटिया, जब ससुराल चली जाती है….

मीत की कलम से
मीत की कलम से
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कल तक गुड्डे गुड़ियोँ के साथ, जो खेलती थी….
गली मोहल्ले, जो नंगे पाँव ही डोलती थी….
कुछ नयी आशाएँ, उसके दिल मेँ पलती हैँ….
आज वो बिटिया, कदम संभाल कर चलती है….

कल तक अपनी सखियोँ से ठिठोली करती थी….
ऊँची आवाज मेँ, अक्सर बोला करती थी….
आँखोँ से पुरानी यादेँ, पल पल बहती हैँ….
दबी सहमी सी, ससुराल मेँ अब वो रहती है….

चॉकलेट और कैँडीज, जिसकी फेवरेट चीजेँ थीँ….
ना डर था किसी का, ना ही कोई दहलीजेँ थीँ….
दिन रात किसी मशीन की तरह, वो चलती है….
अब वो गुड़िया, कीचन से कम ही निकलती है….

जो माँ की बातेँ, सुनकर अनसुनी कर जाती थी….
कुछ नये बहाने, कर के आगे बढ़ जाती थी….
घूंघट के पीछे, ख्वाब नये वो बुनती है….
हर बात बड़ोँ की, सिर झुकाकर सुनती है….

कल तक बाबा के आगे, जिद वो करती थी….
एक पल को भी, वो रुकती ना ठहरती थी….
हर पल सबकी, फरमाईश पूरी करती है….
अब वो बिटिया, हर काम खुशी से करती है….

एक बिटिया की तो, इतनी ही बस कहानी है….
औरोँ की खातिर, इसकी सारी जिँदगानी है….
वो नन्हीँ परी, एकदम से बड़ी हो जाती है….
एक बिटिया, जब ससुराल चली जाती है….

_अमित ‘मीत’

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