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अपने मन का रावण

मीत की कलम से
मीत की कलम से
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गाँव गाँव मेँ जलेगा फिर से, रावण का इक पुतला….
पैदा होगा लेकिन फिर से, मौत के सच को झुठला….
एक मरे तो पैदा होवे, पापी यहाँ इक्कावन….
कब मारोगे मुझे बताओ, अपने मन का रावण….

दुनिया कहती सदियोँ से कि, रावण था अधर्मी….
पर स्त्री का हरण किया था, ऐसा था बेशर्मी….
लेकिन किसकी नजर मेँ नारी, है सीता सी पावन….
कब मारोगे मुझे बताओ, अपने मन का रावण….

रावण ने ना हाथ लगाया, सीता माँ के आँचल को….
ना तेजाब फेँका था उसने, गुस्से से उतावल हो….
नारी की आँखोँ से अब क्यूँ, पल पल रीसता सावन….
कब मारोगे मुझे बताओ, अपने मन का रावण….

रावण ने ना नजर उठायी, पाँच बरस की कन्या पर….
फिर भी घोर अधर्मी बनकर, उभरा था वो दुनिया पर….
वहशी निगाहेँ आज मनुज की, चीर दे सब पहरावन….
कब मारोगे मुझे बताओ, अपने मन का रावण….

रावण ने ना जिँदा जलाया, पुत्रवधु को अपनी….
ना ही पर स्त्री की खातिर, छोड़ी अपनी पत्नी….
घर घर मेँ क्यूँ रची जा रही, फिर से नयी रामायण….
कब मारोगे मुझे बताओ, अपने मन का रावण….

_अमित ‘मीत’

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