मीत की कलम से
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तू चाहती है कि, ये जिँदगी तेरे नाम कर दूँ….
पर उसका क्या, जिसकी ये जिँदगी कर्जदार है….
तू चाहती है कि, तेरे लिए घर बार छोड़ दूँ….
पर उसका क्या, जो मेरी आस मेँ दीये जलाए बैठी है….
तू चाहती है कि, तुझे हर रोज डिनर पे लेकर जाऊँ….
पर उसका क्या, जो मुझे खिलाए बिना एक निवाला भी नहीँ खाती….
तू चाहती है कि, मैँ सारी कमाई तेरे हाथोँ मेँ लाकर दूँ….
पर उसका क्या, जिसने मुझे मुश्किल हालात मेँ भी पढ़ा लिखाकर इस लायक बनाया….
अंत मेँ –
हाँ ये सच है कि
तू मेरी जिँदगी, मेरी हमसफर है….
पर जानकर भी, इस बात से क्यूँ बेखबर है….
मेरी माँ ने मुझे, बड़े नाजोँ से पाला है….
उसकी मुस्कान से ही, घर मेँ मेरे उजाला है….
तू मेरी मोहब्बत है, मेरी आरजू है, चाहत है….
मेरी जिँदगी मगर, मेरी माँ की अमानत है….
_अमित ‘मीत’
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