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काश्मीर का दर्द

मीत की कलम से
मीत की कलम से
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केदारनाथ मेँ देखा मंजर, हमने कितनी बर्बादी का….
वैसा ही अब हाल हो गया, काश्मीर की वादी का….
बाढ़ आयी और फट गये बादल, जन धन का भी नाश हुआ….
धरती की जन्नत मेँ देखो, ये कैसा विनाश हुआ….

जाने किसका श्राप लगा है, इतनी सुंदर वादी पर….
हर पल मौत का मातम रहता, काश्मीर की घाटी पर….
कभी बम का खतरा रहता है, कभी पाकिस्तानी तोप का….
एक नया खतरा फिर जन्मा, प्रकृति के प्रकोप का….

ढह गये कितने घर पानी मेँ, जाने कितनी जान गयी….
धरती मेँ जो स्वर्ग बसा था, उसकी भी पहचान गयी….
धर्म के नाम पे लड़ने वाले, भूल गये क्यूँ मजहब को….
जान पे अपनी बन आयी तो, ढूंढ रहे हैँ क्यूँ रब को….

जब जब ईश्वर की धरती पर, रंगरलियाँ मनाओगे….
ईश्वर के प्रकोप से खुद को, कैसे तुम बचाओगे….
जप और तप की भूमि पर तुम, हनीमून मनाने जाते हो….
आध्यात्म की धरती पर, संसार रचाने जाते हो….

धर्म के नाम पर सारा जीवन, घर उजाड़े लोगोँ के….
जाने कितने सिर काटे हैँ, तुमने मासूम निर्दोषोँ के….
कर नहीँ सकते जब तुम रक्षा, अपनी ही आबादी की….
किस मुँह से करते हो माँगेँ, काश्मीर की आजादी की….

जो सैनिक घर द्वार छोड़ कर, रक्षा तुम्हारी करते हैँ….
उन वीरोँ को तुमसे ही क्यूँ, पत्थर खाने पड़ते हैँ….
आज वो सैनिक फिर से तुम्हारी, जान बचाने निकले हैँ….
जान हथेली पर लेकर के, पानी मेँ फिर उतरे हैँ….

लेकिन उनके अहसानोँ का, कैसा सिला दिया तुमने….
देखते ही सैनिकोँ को, क्यूँ पत्थर उठा लिया तुमने….
राहत सामग्री के चॉपर को, रोक दिया पास आने से….
कौन बचाने आएगा फिर, तुमको टूटते आशियाने से….

अब भी वक्त है सुधर जाओ, मान लो बातेँ ‘मीत’ की….
पालन फिर से शुरू करो तुम, ‘गंगा जमुनी’ रीत की….
काश्मीर की वादी को हम, मिलकर फिर से सजाएँगे….
धरती की उजड़ी जन्नत को, फिर से स्वर्ग बनाएँगे….

_अमित ‘मीत’

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